
बिहार छात्र-दुर्दशा पर आश्चर्य क्यों?
ग़रीबी के कारण सरकारी स्कूलों में अटके बच्चे, जहाँ के शिक्षकों को सैलरी आठ महीने में मिलती है, क्या पढ़ाई करेंगे? उनके सिर्फ फ़ॉर्म भरे जाते हैं।
ग़रीबी के कारण सरकारी स्कूलों में अटके बच्चे, जहाँ के शिक्षकों को सैलरी आठ महीने में मिलती है, क्या पढ़ाई करेंगे? उनके सिर्फ फ़ॉर्म भरे जाते हैं।
जब तक नयी सोच के साथ रोडमैप बनाकर आगे नहीं बढ़ा जाएगा तब तक लोकलुभावन ‘जेनेरिक दवाई’ और फलाने दवाईयों के मूल्य कम कर देने वाली बातों के लॉलीपॉप से कुछ ख़ास नहीं होने वाला। नेशनल हेल्थ पॉलिसी एक जुमला बनकर रह जाएगी और देश का पैसा, समय और जानें बर्बाद होती रहेंगी।
अगर मिथिला राज्य की माँग करने वाले इसको मुद्दा नहीं मानते हैं, तो फिर मुद्दा कुछ भी नहीं है।
लेकिन हिन्दू चुप रहेगा। क्योंकि ये साइंटिफ़िक नहीं है। गाय कट रही है, जानवर कट रहा है। मूर्ति पूजना मूर्खता है, पत्थर चूमना साइंटिफ़िक है।
मैं उनमें से नहीं हूँ जो हॉलीवुड डायरेक्टर का नाम या फ़िल्म का कंटेंट देखकर समीक्षा कर दूँ। समीक्षा तो पहले ही मेरे दिमाग़ में हो चुकी होती है, फ़िल्म तो बस टाइमपास होती है।
60% इंजीनियरों के पास नौकरी नहीं है। 93% एमबीए वाले नौकरी के लायक नहीं हैं। उनके पास बस डिग्री है, किसी काम के नहीं हैं।
हर परेशान आदमी नहीं पीता, लेकिन हर परेशान छात्र को सिगरेट पकड़ाने वाले दस दोस्त लाइटर लेकर खड़े रहते हैं। ये एक तरह से कन्वर्जन टाइप का काम है। ये कम्यूनिटी बनाने का काम है कि अब ये भी हमारे ग्रुप में आ गया।
तर्क है कि माँ-बाप अपने अनुभव से ये जानते हैं कि उनके लिए क्या ठीक रहेगा। अगर ऐसा है तो फिर उस प्रोसेस का हिस्सा छात्रों को भी तो बनाईए कि वो भी कह सके उसकी गणित में रूचि है या क्रिकेट में।
सरकारें इस बात को प्रमोट करती है जब कोई बच्चा आलू से बिजली जला देता है। क्या आलू से बिजली बनेगा देश में?
ये डिबेट भी मैनुफ़ैक्चर्ड ही है। ये इतनी बार दोहराया गया है कि लगता है कि सच में ये कोई इशू है।